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राजनीति में रिस्क लेने से घबराते नहीं नीतीश कुमार!

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राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं नीतीश कुमार. रिस्क लेन से कभी नहीं घबराते. साल 2014 में भी एनडीए से अलग होने का रिस्क लिया था और अब 2017 में भी फिर से रिस्क लेने को तैयार हैं. तभी तो लोग उन्हें राजनीत का चाणक्य भी कहते हैं. साल 2014 के रिस्क को तो ये कहकर समझा जा सकता है कि नीतीश ने राष्ट्रीय स्तर पर खुद की पहचान बनाने को लेकर वो रिस्क लिया था, लेकिन वर्तमान समय के रिस्क के बारे में तो अटकलबाजी भी फेल है. साल 2014 में नीतीश कुमार सोशल इंजीनियरिंग को लेकर नया प्रयोग कर रहे थे. हालांकि वो इस प्रयोग में बुरी तरह फेल हो गए थे. साल 2009 में 20 सीटें लाने वाली जेडीयू साल 2014 महज दो सीटों पर सिमट गई थी. ये 18 सीटों का नुकसान नीतीश कुमार को झकझोरने वाला था.एनडीए का साथ छोड़ने का परिणाम उन्हें मिल चुका था. लेकिन अपनी बात वो कहते किसको. यहीं से फिर नीतीश ने राजनीति का नया प्रयोग किया. जातिगत आधार पर बिहार को गोलबंद करने में माहिर लालू प्रसाद उनके नए साझीदार बने. सालों का कांग्रेस विरोध नीतीश के मन से जा चुका था और वो नए गठबंधन के साथ राजनीति की ऩई पारी खेलने को तैयार थे. नीतीश के इस प्रयोग का जनता ने भी भरपूर साथ दिया और साल 2015 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन को जबर्दस्त सफलता दी. 2014 में जो नीतीश का महादलित का फॉर्मूला उनसे छिटक गया था वो साल भर में ही उनके पास लौट कर आ गया. हालांकि इस जीत में लालू प्रसाद की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. जातीय गोलबंदी और नीतीश कुमार की शख्सियत के दम पर गठबंधन सरकार ने जबर्दस्त सफलता पायी और बिहार में मोदी रथ को रोक दिया. सरकार बनी और नीतीश कुमार उसके मुखिया बने. सबकुछ सामान्य तरीके से चलता रहा. कुछ छोटी-मोटी घटनाओं को लेकर नीतीश कुमार पर सवाल भी उठे लेकिन कमोवेश गठबंधन सरकार चलती रही. लेकिन कुछ घटनाओं ने नीतीश की शख्सियत पर गंभीर सवाल उठाए मसलन राजद के बाहुबलि नेता शहाबुद्दीन की रिहाई को लेकर सरकार की असफलता का आरोप उनपर लगा लेकिन गठबंधन धर्म निभा रहे नीतीश इन सारी आलोचनाओं को झेल गए. लालू और नीतीश के तौर पर  दो विपरित मानसिकता का मिलन भी यहां खूब देखने को मिला. शहाबुद्दीन ने नीतीश कुमार को परिस्थितियों का सीएम बताकर खलबली मचा दी. हालांकि कुछ दिनों बाद ही बिहार सरकार ने उनकी रिहाई का सुप्रीम कोर्ट में विरोध किया और शहाबुद्दीन दोबारा जेल चले गए. नीतीश कुमार ने समय के साथ समझौता किया और हर मौके पर लालू प्रसाद के साथ कानून सम्मत समझौता बनाकर अपनी साफ सुथरी छवि पर दाग नहीं लगने दिया. लेकिन लालू परिवार के खिलाफ सीबीआई की छापेमारी और उनकी सरकार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव पर जिस तरह से एफआईआर हुए उसने नीतीश कुमार की बेदाग छवि को प्रभावित करना शुरु कर दिया. विपक्ष के बढ़ते दबाव के बीच नीतीश कुमार को इस समस्या से निकलना मुश्किल लगने लगा. लेकिन उऩ्होंने यहां भी रिस्क लिया. वो इस बात को बखूबी जान रहे हैं कि उनका एक फैसला इस सरकार पर गंभीर संकट पैदा कर सकता है. इसी बात को ध्यान में रखकर उन्होंने खुद फैसला न लेकर तेजस्वी के खिलाफ राजद को फैसला लेने की नसीहत दी. लेकिन लालू प्रसाद के तेजस्वी के इस्तीफे से साफ तौर पर  इनकार ने नीतीश कुमार को एक बार फिर राजनीति का सबसे बड़ा रिस्क लेने को मजबूर कर दिया है. अपनी साफ सुथरी छवि के साथ किसी भी तरह का समझौता नहीं करने का रिस्क.

नीतीश की राजनीति की कुल जमा पूंजी है उनकी साफ राजनीतिक छवि. एनडीए के साथ भी सरकार के दौरान उन्होंने आरोपित मंत्रियों के इस्तीफे लेने में जरा भी देर नहीं की.

बीजेपी के प्रचंड लहर में भी नीतीश कुमार ने मोदी से सीधी टक्कर ली और पटखनी दी. इसी बूते वो साल 2019 में विपक्ष की तरफ से पीएम पद का उम्मीदवार बनने का माद्दा रखते हैं. बिहार में बीजेपी से हाथ मिलाने पर वो बिहार की सत्ता तो बचा लेंगे लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर अपनी दावेदारी से वो हाथ धो बैठेंगे. बिहार में उनका वोट बैंक उनसे छिटकेगा. जितनी मुश्किल में लालू हैं, राजनीतिक तौर पर उतनी ही मुश्किल में नीतीश कुमार भी हैं. बिहार की राजनीत एक नए मोड़ पर है. लालू के साथ नीतीश की साख भी दांव पर लगी है. ऐसे में सियासत का ये नया रिस्क नीतीश कुमार को डुबाएगा या उबारेगा उसके लिए कुछ दिनों का इंतजार करना पड़ेगा.

 

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