बेधड़क ...बेलाग....बेबाक

क्या होगा नीतीश का स्टैंड? निर्णायक फैसला या निकालेंगे बीच का रास्ता !

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बिहार राजनीति की पटकथा का दुखद या सुखद अंत अभी बाकी है. सीबीआई रेड के बाद जो संभावनाएं बन रही हैं उसका पटाक्षेप अभी होना है. तमाम राजनीतिक पंडितों के साथ-साथ आम आदमी के बीच भी कयासों का बाजार गर्म है. कोई आकलन कर रहा है कि तेजस्वी मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिए जाएंगे, तो कोई कह रहा है कि लालू प्रसाद तेजस्वी को इस्तीफा दिलवाकर महागठबंधन को टूटने से बचा लेंगे. जितने लोग उतने तर्क. अगर इस घटनाक्रम को करीब से देखा जाए तो दूसरा तर्क ज्यादा दमदार नजर आ रहा है. लालू प्रसाद कभी नहीं चाहेंगे कि बिहार में गठबंधन की सरकार गिर जाए और फिर से वो राजनीतिक अकेलेपन में चले जाएं. इसके पीछे तर्क भी है पटना में बेनामी संपत्ति के जो आरोप लालू परिवार पर लगे हैं उनमें राहत की गुंजाइश भी सत्ता में रहकर ही बन सकती है. मॉल निर्माण में नियमों की अनदेखी का जवाब पिछले दिनों ही राज्य सरकार ने कोर्ट में दाखिल किया है. जाहिर है सत्ता से बाहर होने पर उनके लिए ये समस्याएं और भी गंभीर बनेंगी. दूसरा तर्क ये भी है कि लालू सत्ता से दूर रहने का परिणाम देख चुके हैं सो वो कभी नहीं चाहेंगे कि ये सरकार चली जाए या फिर राजद इस सरकार से दूर हो जाए. लालू तेजस्वी की बलि सहकर भी सरकार में बने रहेंगे या यूं कहें कि वो बनाए रखेंगे. दरअसल इस महागठबंधन को बनाने के पीछे की सोच भी इस बात को मजबूती देती है. जातिगत आधार पर ही देखें तो यादवों में लालू की पैठ पहले भी थी और अभी भी है. यादव वोट बैंक उनका परंपरागत वोट रहा है. यादवों के लिए लालू प्रसाद सर्वमान्य लीडर हैं. हालांकि सूबे में कई दूसरे नेता भी यादव जाति से आए लेकिन यादवों ने लालू छोड़कर किसी दूसरे पर भरोसा नहीं जताया. लालू के कार्यकाल के दौरान और कुछ समय बाद भी मुस्लिम वोटर लालू के साथ थे. लेकिन सत्ता से जाते ही मुस्लिम वोटरों का ज्यादा तबका नीतीश कुमार को अपना लीडर मानने लगा. जाहिर है जिस जातिगत समीकरण के दम पर लालू ने नब्बे के दशक में सत्ता पायी थी वो सत्ता खोने के बाद दरक चुका था और लालू अपना अस्तित्व गंवाते दिख रहे थे. लेकिन पिछली विधानसभा चुनाव ने उन्हें फिर से संजीवनी दी. जिस राजनीतिक और जातिगत गठबंधन की वो तलाश कर रहे थे उसमें वो कामयाब रहे और नीतीश कुमार के साथ उनका गठबंधन हुआ. विधानसभा चुनाव के परिणाम भी सबके सामने हैं. लालू का जातिगत समीकरण फिर से एकजुट हुआ और महागठबंधन ने जबर्दस्त सफलता पायी. लालू को लगा कि भविष्य में ये प्रयोग हमेशा बीजेपी पर भारी पड़ेगा और इस गठबंधन के दम पर वो बीजेपी को कम से कम बिहार की राजनीति से हमेशा दूर कर देंगे.
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि लालू अपने राजनीतिक विरासत को इतनी जल्दी खत्म होता नहीं देख सकते. चारा घोटाले में सजा होने के बाद उनका राजनीतिक सफर खत्म हो चुका है सो उन्होंने अपने दोनों बेटों को मंत्री बनवाया और राजनीति के गुर सीखने का बेहद मजबूत प्लेटफॉर्म दिया. नीतीश कुमार जैसे सरीखे सियासतदां के साथ बेटों ने भी सरकार के कामकाज के गुर सीखे और भविष्य में अकेले की लड़ाई को लेकर तैयारी भी शुरु कर दी. दरअसल लालू की नजर भविष्य की लड़ाई को लेकर थी और शायद उनके जेहन में ये बात थी कि तेजस्वी और तेज प्रताप अगर राजनीति को समझने और उसे चलाने में सक्षम हो गए तो अगली लड़ाई अकेले ही लड़ने में भलाई है. राजद के अंदर से भी ये मांग जबर्दस्त तरीके से उठाई गई कि तेजस्वी को अगले सीएम पद का दावेदार होना चाहिए. लालू इन सारी बातों को ध्यान में रखकर बड़ी ही सफाई से आगे बढ़ रहे थे. इस दौरान उन्होंने गठबंधन सरकार के अंदर रहते हुए भी कई बार राजनीति के कड़वे घूंट भी पिए.
लेकिन सीबीआई की रेड और तेजस्वी पर दर्ज एफआईआर ने उनकी तमाम योजनाओं पर फिलहाल विराम लगा दिया है. तेजस्वी राजनीतिक सफर शुरु करने से पहले ही दागी हो गए. ये भी संभव है कि सीबीआई उन्हें गिरफ्तार कर ले. ऐसे में बड़ा सवाल है कि लालू का उत्तराधिकारी कौन होगा? और उनकी राजनीतिक विरासत का क्या होगा? अब सबकी नजर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर है जो राजगीर में स्वास्थ्य लाभ कर पटना लौट चुके हैं. नीतीश की राजनीतिक चाल पढ़ने वाले कई पंडित उनसे निर्णायक फैसले की उम्मीद लगाए बैठे हैं. लेकिन नीतीश की राजनीति को करीब से समझने वाले और देखने वाले लोग ये बता रहे हैं कि नीतीश निर्णायक फैसले लेने के बदले बीच का रास्ता निकालने की कोशिश करेंगे, जिससे लालू की बात भी रह जाए और गठबंधन की सरकार भी चलती रहे.

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