विपक्ष डाल-डाल तो नीतीश कुमार पात-पात. पॉलिटिक्स में अपनी बातों को सबसे उपर रखना भी एक कला है. जिसकी बातों में ज्यादा दम उसकी पूछ सबसे ज्यादा. बड़ी ताम-झाम से नीतीश कुमार विपक्षी खेमे में शामिल हुए, बिहार में महागठबंधन बनाया, कांग्रेस के साथ मिलकर बिहार में सरकार भी चला रहे हैं. लेकिन केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस की किसी भी बात से वो सहमत दिखाई नहीं देते. जब चाहा बैठक में शामिल भी हो गए और जब चाहा उससे इनकार कर दिया. राष्ट्रपति चुनाव को लेकर विपक्षी एकता की बात सबसे पहले उठाने वाले नेता नीतीश कुमार ही थे. इस मामले में उनकी सोनिया गांधी से मुलाकात भी हुई और नीतीश ने उनसे पहल की अपील भी की. विपक्षी एकता की मजबूती से गदगद सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति चुनाव को लेकर सारे विपक्षी दलों की एक बैठक भी बुलायी लेकिन नीतीश कुमार उस बैठक से गायब हो गए. इसे आप महज संयोग ही मानेंगे कि नीतीश कुमार कांग्रेस की तरफ से बुलाई गई विपक्षी दलों की पिछली तीन बैठकों में शामिल नहीं हो पाए और उन्होंने अलग रास्ता ही अख्तियार किया.
राष्ट्रपति चुनाव को लेकर हुई पहली बैठक से ठीक पहले नीतीश कुमार ने पटना में पार्टी की एक बैठक बुलाई और एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को अपना समर्थन दे दिया. अब मंगलवार को विपक्ष ने उप राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के चुनाव के लिए एक बैठक रखी जिसमें भाग लेने से नीतीश कुमार ने इनकार कर दिया. हालांकि जेडीयू की तरफ से शरद यादव ने इस बैठक में हिस्सा लिया.
बड़ा सवाल यह है कि आखिर नीतीश कुमार चाहते क्या हैं? क्या वो विपक्ष से पीछा छुड़ाना चाहते हैं? क्या वो लालू परिवार पर लग रहे भ्रष्टाचार से तंग आकर इस विपक्षी एकता से बाहर आना चाहते हैं? और क्या नीतीश कुमार का बिहार के महागठबंधन सरकार से मोहभंग हो गया है? ये सवाल इसलिए भी उठना लाजिमी है, कारण कि जो नीतीश कुमार विपक्ष को एकजुट करने के लिए सोनिया से लेकर लेफ्ट तक के नेताओं के चक्कर लगा चुके हैं, चेन्नई जाकर करुणानिधि के जन्मदिन पर विपक्षी नेताओं से गुफ्तगू कर चुके हैं, वो आखिर विपक्ष की बैठक में शामिल होने की बजाए अपनी पार्टी की बैठक में क्यों व्यस्त हैं?
ऐसा भी नहीं है कि वर्तमान समय का मसला किसी भी मसले से कमतर है. दिल्ली जाकर किसी उम्मीदवार का चयन करने से ज्यादा महत्वपूर्ण बात नीतीश कुमार को अपनी साख बचाना है. अगर उन्होंने सोच-समझ कर फैसला नहीं लिया तो उनकी छवि को नुकसान पहुंच सकता है. निश्चित ही विपक्षी पार्टियों की बैठक में शामिल होने की बजाए वो खुद की छवि का ज्यादा ध्यान रखेंगे.
लेकिन विपक्षी एकता के लिए आयोजित बैठकों से अचानक गायब हो जाना कहीं न कहीं सवाल तो जरुर पैदा कर रहा है. ऐसा पहली बार नहीं बल्कि तीसरी बार हो रहा है. 26 मई को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने संसद भवन परिसर में लंच पर विपक्ष के नेताओं की बैठक बुलाई थी. इस बैठक में सभी दलों के नेता आये लेकिन नीतीश नदारद रहे. हालांकि उनकी पार्टी के प्रतिनिधि जरूर शामिल हुए. नीतीश सोनिया के लंच में शामिल नहीं हुए लेकिन अगले ही दिन यानी 27 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ लंच करते दिखे. इसके बाद कांग्रेस ने 22 जून को दूसरी बैठक बुलाई. उम्मीद की जा रही थी कि इस बैठक में नीतीश जरूर शामिल होंगे. लेकिन इस बार नीतीश ने एक दिन पहले ही यानी 21 जून पटना में अपनी पार्टी की मीटिंग बुला ली और फिर एनडीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को समर्थन देने का ऐलान कर दिया. विपक्ष की एकता के लिए नीतीश का यह कदम वज्रपात की तरह था. अब उप राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार पर चर्चा के लिए बुलाई गई बैठक में शामिल न होकर उन्होंने बीजेपी के साथ बढ़ती नज़दीकी की बातों को और हवा दे दी.
हालांकि कई राजनितिक विश्लेषक ये कहते हैं कि नीतीश का ये कदम खुद को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने के लिए कांग्रेस पर दबाव बनाना भी हो सकता है. हालांकि नीतीश पीएम पद की दौड़ से खुद को बाहर मानते हैं. ये खुद उन्होंने कई बार कहा है लेकिन लगे हाथ ये कहकर अपनी मंशा भी साफ़ कर दी की “जिसका नाम पहले चल जाता है वो भला कहां पीएम बन पाता है”.
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