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नीतीश के जाते ही टूट गया बीजेपी विरोधी मोर्चे का ख्वाब!

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पटना Live डेस्क. जिस विपक्षी मोर्च का ख्वाब साल 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले देखा जा रहा था उसका ख्वाब नीतीश कुमार के निकलते ही दफन हो गया. जिस बीजेपी विरोधी मोर्चे का ताना-बाना बिहार की महागठबंधन सरकार की जीत पर बुना जा रहा था वो बीच रास्ते में ही झंझावतों का शिकार हो गया. राजनीतिक इतिहास में इसके लिए सोनिया और लालू प्रसाद के पुत्र मोह को ही दोषी माना जाएगा. साल 2015 में बिहार में जेडीयू,कांग्रेस और राजद को मिली जीत से उत्साहित विपक्षी पार्टियों को लगा था कि वो इस एका के सहारे 2019 में बीजेपी को शिकस्त देने में कामयाब हो जाएंगे. लेकिन कुछ पार्टियों के निजी स्वार्थ ने इस सोच को ही तार-तार कर दिया और विपक्षी पार्टियों की भविष्य की संभावनाओं को पलीता लगा दिया.

अगले लोकसभा चुनाव के लिए बड़े स्तर पर विपक्षी पार्टियों की एकता की कल्पना बिहार में मिली जीत से ही प्रेरित थी. चूंकि नीतीश कुमार के चेहरे के दम पर इस चुनाव में विपक्षी पार्टियों को जीत मिली थी सो शुरुआती दौर में नीतीश कुमार विपक्षी पार्टियों के लिए सर्वमान्य थे,लेकिन समय बीतने के साथ ही कांग्रेस नेतृत्व ने राहुल गांधी का चेहरा आगे करना शुरु कर दिया. महागठबंधन में शामिल कांग्रेस के नेताओं ने खुलकर राहुल गांधी के चेहरे को 2019 के लिए प्रोजेक्ट करना शुरु कर दिया. इसके लिए कांग्रेस भ्रष्टाचार में सपरिवार डूबी लालू प्रसाद के साथ दिखने के लिए तैयार हो गई. इसी तरह सीबीआई छापे के बाद लालू प्रसाद भी तेजस्वी के इस्तीफा नहीं देने की बात पर अड़ गए. कांग्रेस और लालू प्रसाद का ये परिवार मोह अंत में राजनीति के बड़े बदलाव का कारण बन गया.

नीतीश कुमार के बीजेपी के साथ आने से विपक्षी खेमा फिलहाल तन्हा दिखने लगा है. अंतर भी साफ है नीतीश कुमार जिस परिवारवाद और भ्रष्टाचार से वहां जूझ रहे थे वो एनडीए खेमे में नहीं है. जेडीयू के शीर्ष नेता के सी त्यागी के इस बयान से समझा जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी एनडीए में ज्यादा सहज थी. मतलब साफ है कि कहीं न कहीं नीतीश कुमार पर परिवारवाद और भ्रष्टाचार को तथ्यपरक बनाने का दबाव था,जिसके लिए वो सहमत नहीं थे. पिछले लोकसभा चुनाव से ही भ्रष्टाचार के आरोप झेल रही कांग्रेस ने वही गलती दोबारा की और तेजस्वी मामले पर लालू का साथ ही दिया. इसके विपरीत नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की जोड़ी भ्रष्टाचार के खिलाफ तगड़ी मानसिकता दिखला रही है साथ ही दोनों नेता विकास आधारित राजनीति पर ही भरोसा करते हैं.

वैसे देखा जाए तो नीतीश कुमार नवंबर 2015 में ही असहज होने लगे थे जब लालू प्रसाद ने अपने दोनों बेटों को मंत्री बनवाने की जिद ठान दी. उस समय नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद की बातें मान लीं. लेकिन महागठबंधन सरकार में बीते बीस महीनों ने नीतीश कुमार की जमकर परीक्षा ली कारण है कि उन्होंने इस दौरान बेमेल लालू प्रसाद और कांग्रेस से तालमेल बैठाने की भरपूर कोशिश की.

बहरहाल लालू प्रसाद के आवास पर सीबीआई छापे और तेजस्वी यादव के खिलाफ सीबीआई के मुकदमे ने नीतीश कुमार के लिए हालात के नजरअंदाज करना कठिन कर दिया. तेजस्वी यादव की वजह से नीतीश कुमार की छवि पर आंच आना शुरु हो गया. उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी से मुलाकात कर अपनी कठिनाई बताई, लेकिन सत्ता लोलुप कांग्रेस भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भी लालू प्रसाद के साथ खड़ी नजर आई. आखिरकार नीतीश कुमार को महागठबंधन का मोह छोड़ना पड़ा. नीतीश कुमार का यह फैसला निश्चत तौर पर अगले लोकसभा चुनाव में गहरा असर डालेगा. यह भी सच्चाई है कि महागठबंधन की जटिलताओं से गुजरकर नीतीश कुमार ज्यादा समझदार दिख रहे हैं. नीतीश कुमार की छवि और जातिगत आधारों पर बेशक मतदाताओं ने महागठबंधन को बहुमत दे दिया था लेकिन ये भी सच्चाई है कि समय गुजरने के साथ ही लोगों की आकंक्षाओं ने भी दम तोड़ना शुरु कर दिया था. अब उम्मीद की जानी चाहिए कि भाजपा-जेडीयू का साथ, बिहार की छवि और विकास के लिए निर्णायक होगा और नीतीश कुमार फिर से प्रखर नेता के तौर पर उभरेंगे.

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